******* रघुवंश *******
(संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर)
महाकवि कालिदास
तपोवन की यात्रा
दिलीप की तपश्चर्या
रघु की अग्नि-परीक्षा
दिग्विजय
विश्वजित् यज्ञ
इन्दुमती का स्वयंवर
अज का राजतिलक
अज का स्वर्गवास
पुत्र-वियोग का शाप
राम-जन्म
राम-विवाह
लंकेश-वध
भरत-मिलाप
वैदेही-वनवास
राम का शरीर-त्याग
उत्तराधिकारी कुश
राजा अतिथि
अतिथि के वंशज
पतन की ओर
तपोवन की यात्रा
रघुवंश के संस्थापक यशस्वी रघु के पिता महाराज दिलीप ने पृथ्वी के सबसे प्रथम सम्राट् वैवस्वत मनु के उज्ज्वल वंश में जन्म लिया था। दिलीप बहुत बलवान और तेजस्वी राजा था, मानो साक्षात् क्षात्र धर्म का अवतार हो। वह जैसा बलवान था, वैसा ही बुद्धिमान, विद्वान् और कर्मशील था । प्रजा उसे पिता के समान मानती थी। विरोधी और आततायी उसके दंड से डरते थे। समुद्र-रूपी खाई से घिरे हुए पृथ्वी-रूपी किले का वह इस सुगमता से शासन करता था, मानो एक नगरी का शासन कर रहा हो।
जैसे यज्ञ की संगिनी दक्षिणा है, उसी प्रकार राजा दिलीप के साथ अटूट सम्बन्ध से बंधी हुई रानी सुदक्षिणा थी, जिसने मगधवंश में जन्म लिया था । राजा को अन्य सब सुख प्राप्त थे, केवल सन्तान का सुख नहीं था। सन्तान की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने का विचार करके राजा ने राज्य की देख-रेख का भार मन्त्रियों के कन्धों पर डाल दिया और महारानी को साथ ले गुरु वसिष्ठ के आश्रम की ओर प्रयाण किया। सुसज्जित रथ में बैठे हुए राजा और रानी ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे घने सावन के बादल में बिजली और बरसाती पवन शोभा पाते हैं। उनकी आश्रम-यात्रा बहुत ही मनोरंजक और मंगलसूचक रही। फूलों के पराग को चारों दिशाओं में बिखेरने वाला, साल के रस से सुगन्धित सुखकारी वायु उनकी सेवा कर रहा था। मोरों की षडज के सदृश स्वरवाली केकाएं उनके कानों को आनन्दित कर रही थीं और हरिणों के जोड़े रास्ते के समीप ही खड़े होकर उनकी ओर निहार रहे थे। उन हरिणों की आंखों में राजा और रानी एक-दूसरे की आंखों की छवि देखकर प्रसन्न हो रहे थे । मार्ग में अहीर- बस्तियों के जो मुखिया लोग, ताजे मक्खन की भेंट लेकर उपस्थित होते थे, उनसे वे दोनों जंगली वनस्पतियों के नाम पूछते थे। इस प्रकार मार्ग के सुन्दर दृश्य देखते हुए महारानी सुदक्षिणा और महाराज दिलीप दिन छिपने के समय महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में पहुंच गए।
वसिष्ठ मुनि के आश्रम में उस समय सन्ध्याकाल की चहल-पहल थी। तपस्वी लोग समिधा, कुशा और फल इकट्ठे करके जंगल से लौट रहे थे; ऋषि पलिसा द्वारा बिखेरे हुए अन्न से खिंची हुई मृगों की टोलियां कुटियों के दरवाजां पर इकट्ठी हो रही थीं, मुनि कन्याएं आश्रम-वृक्षों को सींचकर दूर हट गई थीं, तावि पक्षी निर्भय होकर थामलों में से पानी पी सकें। होम से उठा हुआ धुआ वाहर से आनेवाले अतिथियों को पवित्र कर रहा था।
आश्रम में पहुंचने पर राजा दिलीप ने सारथि को आज्ञा दी कि घोड़ों को आराम दो। वे स्वयं रथ से उतर गए और फिर रानी को उतार लिया सभ्यता के नियमों से परिचित तपस्वी लोगों ने सपत्नीक राजा का यथोचित आदर-सत्कार किया। जब ऋषि वसिष्ठ सायंकाल के सन्ध्योपासना से निवृत्त हो गए, तब राजा और रानी उनकी सेवा में उपस्थित हुए। ऋषि के समीप उस समय उनकी पतनी अरुन्धती विराजमान थी, मानो स्वाहा यज्ञ की अग्नि के समीप विराज रही हो राजा और राजपत्नी ने ऋषियुगल के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। ऋषियुगल ने उन्हें आशीर्वाद दिया।
ऋषि को जब यह सन्तोष हो गया कि अतिथि-पूजा से राज-युगल की थकान उतर गई है, तब उन्होंने राज्य के कुशल-क्षेम के सम्बन्ध में प्रश्न किए। राजा ने उत्तर दिया-हे गुरो, आपके प्रसाद से राज्य में सब कुशल है। आपके मन्त्रबल ने मेरे तीरों को व्यर्थ-सा सिद्ध कर दिया है। आपके यज्ञों में, अग्निकुण्ड में डाला हुआ हवि मेघों से जल बनकर बरस जाता है, जिससे सदा सुभिक्ष बना रहता है। मेरी प्रजा सौ साल तक जीती है और निर्भय होकर रहती है। यह आपके ब्रह्म तेज का ही फल है। यह सब कुछ होते हुए भी, हे, गुरुवर, रत्नों को पैदा करने वाली यह द्वीप-सहित भूमि मेरे मन को संतुष्ट नहीं कर सकती, क्योंकि आपकी इस बहू की गोद संतान-रूपी रत्न से शून्य है। भविष्य में कुल की लता को कटता देखकर मेरे पूर्वपुरुष अवश्य ही परम दुःखी होते होंगे, और मेरी अर्पित जलांजलि उनके मुख में जाने से पूर्व ही चिन्ता के निश्वासों से कुछ गर्म हो जाती होगी। जैसे स्नान रहित हाथी को चोदने वाला खूंटा कष्ट देता है, सन्तान न होने 1. से पितृण का सन्ताप मुझे उसी प्रकार तपा रहा है। हे तात, जिस विधि से मैं पिता करण से मुक्त हो सकूं, वह कीजिए। इक्ष्वाकुवंश के लोग प्रत्येक कठिनाई की नदी को आपके विधान से ही पार करते रहे हैं।
राजा के वचन सुन ऋषि क्षण-भर आंखें मूंदकर ध्यान में मग्न रहे, मानो किसी तालाब में सब मछलियां सो गई हों। ध्यानावस्था में ऋषि ने जो कुछ देखा, वह राजा को बतलाते हुए कहा हे राजन्! एक बार देवराज इन्द्र से मिलकर जब तुम स्वर्ग से पृथ्वी की ओर आ रहे थे, सुरभि गौ कल्पतरु की छाया में विश्राम कर रही थी। रानी ऋतुस्नाता है, इस विचार से तुम घर आने की जल्दी में थे, और पूजा के योग्य सुरभि की उपेक्षा करके चले आए। सुरभि ने इस तिरस्कार से रुष्ट होकर तुम्हें शाप दिया कि जब तक तुम मेरी सन्तान की आराधना न करोगे, तब तक तुम्हारे सन्तान न होगी। आकाशगंगा के ठाठे मारते हुए जल-प्रवाह में दिग्गज स्नान कर रहे थे, जिनके शोर के कारण सुरभि का शाप न तुमने सुना और न तुम्हारे सारथि ने । जो पूजा के योग्य हैं, उनका तिरस्कार करने से मनुष्य के सुखों का द्वार बन्द हो जाता है । तुम्हारी इच्छाओं के द्वार की सांकल बन्द होने का भी यही कारण हुआ। सुरभि आजकल प्राचेतस् के यज्ञ के निमित्त पाताल में गई है। उसकी पुत्री हमारे इस आश्रम में विद्यमान है। तुम और तुम्हारी पत्नी उसे सेवा से सन्तुष्ट करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी ।
ऋषि के वाक्य अभी समाप्त भी न हुए थे कि वन से लौटती हुई नन्दिनी नाम की सुन्दर-स्वस्थ गौ सामने आ गई। नन्दिनी का रंग नई कोंपल के समान चिकना और लालिमा लिए हुए था। उसके माथे पर सफेद रोएं का टीका ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे सन्ध्याकाल के आकाश पर चन्द्रमा। बछड़े को देखकर स्वयं टपकनेवाले पावन दूध की धार से वह कुण्डोध्नी पृथ्वी को पवित्र कर रही थी। उसके खुरों से उठने वाले रज के रेणुओं से स्नान करके राजा ने मानो तीर्थस्नान कर लिया। ऋषि ने नन्दिनी के उस समय के दर्शन को मनोरथ-सिद्धि के लिए कल्याणकारी जानकर राजा से कहा :
राजन्, नाम लेते ही यह कल्याणी सामने आ गई, इससे तुम अपना मनोरथ पूरा हुआ मानो। जैसे विद्या को अभ्यास से प्रसन्न किया जाता है, इसी प्रकार वनवासियों-सा रहन-सहन करके निरन्तर सेवा द्वारा नन्दिनी को प्रसन्न करो । इसके चलने पर चलो, ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और जल पीने पर जल पीयो । बहू को भी चाहिए कि इसकी पूजा करे। वन जाने के समय कुछ कदम तक छोड़ने जाए और वापस आने पर कुछ कदम आगे बढ़कर स्वागत करे। जब तक यह प्रसन्न न हो तब तक हे राजन्, तुम इसकी सेवा करो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी और तुम्हारा कुल अविच्छिन्न रहेगा।
राजा ने सिर झुकाकर गुरु के आदेश को स्वीकार किया। इस बातचीत में रात हो गई थी। मधुर सत्य बोलनेवाले उस ऋषि ने प्रजाओं के पालक दिलीप को सोने की आज्ञा देते हुए ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि राजा का रहन-सहन वनवासियों के सदृश हो जाए। राजा और रानी, कुलपति द्वारा बतलाए हुए झोंपड़े में कुशों की सेज पर रात-भर सोए। प्रातःकाल होने पर आश्रम के छात्रों के वेदपाठ से उनकी नींद खुली।
दिलीप की तपश्चर्या
प्रातःकाल होने पर रानी सुदक्षिणा ने नन्दिनी का गन्ध और माला से सत्कार किया जब बछड़ा दूध पीकर बांधा जा चुका, तब तपस्वी राजा ने गौ को खूंटे से खोल दिया। जैसे स्मृति-ग्रंथ वेदों का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार नन्दिनी के खुरों के स्पर्श से पवित्र वनमार्ग पर, महारानी भी पीछे-पीछे चलीं। दयावान् राजा ने पत्नी को वन जाने से रोककर नन्दनी की रक्षा का बोझ अपने कन्धों पर लिया, मानो चार स्तनरूपी समुद्रोंवाली पृथ्वी की रक्षा का बोझ संभाला हो । राजा को वन की ओर जाते देखकर राजपुरुष भी पीछे-पीछे चलने लगे। राजा ने उन्हें रोक दिया क्योंकि मनु की सन्तान दूसरे से रक्षा नहीं चाहती, अपने बाहुबल पर ही भरोसा रखती है। वन में सम्राट ने नन्दिनी के भोजन के लिए स्वादु-स्वादु घास एकत्र की, खुजली होने पर खुजलाया, जंगली दंशों को हटाया और रास्ते की रुकावटों को दूर करके इच्छानुसार घूमने का मार्ग साफ किया। जब नन्दिनी ठहरती, तब राजा भी ठहर जाता, जब वह चलती तो चलने लगता; जब नन्दिनी बैठ जाती, तब राजा बैठ जाता, और जब वह जल पीती, तब जलपान करता था। इस प्रकार राजा छाया के समान उसके साथ-साथ चलता था। जैसे जब गजराज के कपोलों 1. से मदन चू रहा हो, तब भी डीलडौल के कारण उसकी गजराजता का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी प्रकार सब राजसी ठाठ का परित्याग कर देने पर भी, चेहरे के तेज से राजा का राजपन साफ-साफ झलक रहा था। लताओं से केशों का जूड़ा बांधे हुए मुनिवेश में बह नरपति, मुनि की होम-धेनु की रक्षा के बहाने हिंसक जन्तुओं को नियन्त्रण में लाने के लिए जंगल में घूम रहा था । सब सेवकों का विसर्जन कर देने के कारण बिल्कुल एकाकी, वह वरुण देवता के समान ओजस्वी राजा, जिस मार्ग से निकला था, उसके दोनों ओर लगे वृक्ष चहचहाते पक्षियों के शब्दों से उसका जय-जयकार करते थे।
वृक्षों पर चढ़ी हुई कोमल लताएं पवन-रूपी हायों से अग्निसमान तेजस्वी दिलीप पर पुष्पवर्षा कर रही थीं, मानो नगर की कन्याएं अपने घरों की अटारियों से लाजों की वर्षा कर रही हों। खोखले बांसों में तारस्वर से गूंजते हुए पवन की ध्वनि द्वारा वनदेवता उसके यश का गान कर रहे थे हिमालय की गोद में बहनेवाली नदियों के तुषार के स्पर्श से शीतल और वृक्षों के फूलों के सम्पर्क से सुगन्धित पवन, छाते के विना धूप में भ्रमण करते हुए राजा की थकान को उतार रहा था। दिन व्यतीत हो जाने पर, अपने परिभ्रमण से दिशाओं को पवित्र करके, कोंपल के समान, तांबे जैसी रंगवाली सन्ध्या और मुनि की गौ घर की ओर लौटी। जिसके दूध से देवता, पितृगण और अतिथियों को सन्तुष्ट किया जाता था, राजा उस पवित्र गौ के पीछे-पीछे चला। नन्दिनी पीछे चलनेवाले राजा से ऐसे शोभायमान हो रही थी, जैसे श्रद्धा विधिपूर्वक किए गए अनुष्ठान से शोभायमान होती है। उस समय जंगली सूअर जोहड़ों में से निकल रहे थे, मयूर अपने डेरों की ओर जा रहे थे, और हरिण दिन के भ्रमण से लौटकर हरे मैदानों में विश्राम कर रहे थे। दूध से भरे हुए स्तनों के कारण नन्दिनी और शरीर के विशाल डीलडौल के कारण राजा दिलीप, दोनों ही ऐसी शानदार चाल चल रहे थे कि आश्रम के मार्ग की शोभा दस गुनी हो गई थी।
वसिष्ठ की गौ के पीछे-पीछे आते हुए भर्ता को रानी अत्यन्त प्यासे नेत्रों से देर तक एकटक निहारती रही। आगे राजा, पीछे रानी और बीच में नन्दिनी-आश्रम में इस क्रम से जब वे तीनों पहुंचे, तो ऐसा प्रतीत होता था, मानो दिन और रात के मध्य में सन्ध्या पधार रही हो। ठिकाने पर पहुंचकर सुदक्षिणा ने अक्षतों का पात्र हाथ में लेकर नन्दिनी की प्रदक्षिणा की, फिर प्रणाम किया और अन्त में फल-सिद्धि के द्वार के सदृश श्रृंगों के मध्यस्थान की पूजा की। नन्दिनी बछड़े के लिए उत्सुक थी, तो भी उसने शान्तभाव से पूजा ग्रहण कर ली, इससे राजा-रानी बहुत प्रसन्न हुए। भक्तिपूर्वक उपासित हुए प्रार्थियों के प्रति ऐसे पावन व्यक्तियों की प्रसन्नता के चिह्न पहले ही प्रकट हो जाते हैं।
इसी प्रकार राजा की दिनचर्या चलने लगी। वह रात को नन्दिनी के सो जाने पर सोता, प्रातः उठने पर उठता और दिन चढ़ने पर नन्दिनी के पीछे-पीछे धनुष हाथ में लेकर जंगल चला जाता। सम्राट् और सम्राज्ञी को यह व्रत पालन करते हुए इक्कीस दिन व्यतीत हो गए।
एक दिन नन्दिनी अपने सेवक के भाव की परीक्षा करने के लिए गंगा के प्रपात के समीप हरे-हरे घास से सुशोभित हिमालय की गुफा में घुस गई । कोई हिंसक प्राणी भी मुनि की यज्ञ-धेनु का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इस भावना से राजा बिल्कुल निश्चिन्त था और पर्वत की शोभा निहार रहा था कि एक शेर ने धेनु को धर दवाया। उसका आर्तनाद गुफा से प्रतिध्वनित होकर गुंज उठा जिसने हिमालय में लगी हुई राजा की दृष्टि को मानो रासों से पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। धनुर्धारी दिलीप ने देखा कि उस पाटल गौ के समीप केशरी शेर खड़ा है, मानो तांबे के रंग की चट्टान पर लोध्र का पेड़ खिला हुआ हो। शेर के समान चालवाले राजा के मन में शेर के इस अविनय से अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई और उसका हाथ स्वभाव से तूणीर से तीर निकालने के लिए बढ़ा। परन्तु राजा ने दुःख और आश्चर्य से अनुभव किया कि उसका दायां हाथ नख की प्रभा से रंगे हुए तीर की केरी पर पहुंचकर रुक गया-ऐसा गतिहीन हो गया मानो किसी चित्र का अंग हो ।
क्रोध से भरे हुए फणियर सांप की जो दशा मन्त्र और औषधि द्वारा काटने की शक्ति को रोक देने पर हो जाती है-भुजा के शक्तिहीन हो जाने पर राजा की वही दशा हो गई। वह भड़के हुए तेज से अन्दर ही अन्दर जलने लगा। बलिष्ठ हाथ के रुक जाने के कारण क्रोध और आश्चर्य में पड़े हुए राजा के आश्चर्य को और बढ़ाता हुआ सिंह मनुष्य की भाषा में कहने लगा।
हे राजन्, अपना हाथ तूणीर से हटा लो। यदि तुम तीर चला दोगे, तो भी वह यहां व्यर्थ ही जाएगा। जो वायु का झोंका पेड़ को जड़ से उखाड़कर फेंक देता है, वह चट्टान से टकराकर व्यर्थ हो जाता है। तुम मुझे साधारण शेर मत समझो। कैलास पर्वत के समान सफेद वृषभ पर बैठने के समय, भगवान शंकर मेरी पीठ को पादयान बनाकर पवित्र करते हैं। मेरा नाम कुम्भोदर है, मैं भगवान का सेवक हूं। यह जो देवदारु का वृक्ष सामने दिखाई दे रहा है, इसे मेरे स्वामी ने अपना बच्चा माना हुआ है। माता पार्वती ने सोने के कलश से पानी देकर इसे ऐसे पाला है, जैसे छाती के दूध से बच्चे को पाला जाता है। एक बार एक जंगली हाथी ने पीठ खुजलाकर इसकी छाल उतार दी थी। उससे मां को ऐसा दुःख हुआ मानो सेनापति कुमार को असुरों के अस्त्रों ने घायल कर दिया हो। तभी से स्वामी ने मुझे इस वृक्ष की रखवाली पर नियुक्त कर दिया है। और यह नियम बना दिया है कि जो शिकार यहां स्वयं आ जाये, उसी से अपना पेट भरता रहूं। जैसे राहू को तृप्ति के लिए चन्द्रमा का अमृत प्राप्त होता है, आज परमेश्वर ने उसी प्रकार मेरी भूख का निवारण करने के लिए यह बलि भेजने की कृपा की है। हे राजन्, जिसकी रक्षा करनी हो, यदि यत्न करने पर भी शस्त्रों से उसकी रक्षा न हो सके तो अस्त्रधारी को दोष नहीं दिया जा सकता। तुम लज्जा मत करो। तुमने गुरु के प्रति अपनी भक्ति प्रकट कर दी, अब तुम घर लौट जाओ ।
महाराज ने जब पशुओं के सम्राट के प्रगल्भ वचनों से यह जाना कि भगवान् शंकर के प्रभाव ने उसके हाथों और शस्त्रों की शक्ति को क्षीण कर दिया है, तो उसके मन में अपने प्रति जो ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ था, वह हल्का हो गया। राजा ने सिंह से कहा --
हे मृगेन्द्र, मेरा हाथ शंकर के प्रभाव से रुक गया है, इस कारण मैं जो कुछ कहना चाहता हूं, उसे सुनकर शायद तुम हँस पड़ोगे परन्तु तुम तो प्राणियों के मन की बात भी जानते हो, तब कहने में ही क्या हानि है! सृष्टि की रचना, रक्षा और संहार करने वाले भगवान के सामने मैं सिर झुकाता हूं, परन्तु मैं गुरु के यज्ञ के साधनभूत इस गोधन को नष्ट होता भी तो नहीं देख सकता। सों हे वन के स्वामी! अपनी भूख की मेरे शरीर से निवृत्ति कर लो । सन्ध्या के समय महर्षि की इस धेनु का बछड़ा अपनी मां की बाट जोह रहा होगा, इसे छोड़ दो।
देवाधिदेव का सेवक राजा दिलीप की बात सुनकर कुछ हँसकर कहने लगा। बोलते समय उसके बड़े-बड़े दांतों की सफेद किरणों से गुफा का अन्धकार नष्ट हो रहा था। उसने कहा -
पृथ्वी पर तुम्हारा एकछत्र राज्य है, चढ़ती जवानी है और सुन्दर शरीर है। छोटी-सी बात के लिए सब कुछ त्याग देने का संकल्प प्रकट करते हुए तुम मुझे नासमझ-से प्रतीत होते हो । यदि तुम दया के कारण अपनी बलि दे रहे हो तो सोचो कि तुम्हारे मरने से केवल एक गौ बचेगी, और जीवित रहोगे तो चिरकाल 1. तक सम्पूर्ण प्रजा की, पिता के समान आपत्तियों से रक्षा कर सकोगे। हो सकता है कि तुम्हें गुरु के अग्नि-समान क्रोध से डर लगता हो। उसका निवारण तुम करोड़ों दुधारु गौओं का दान करके कर सकते हो। अतः तुम्हें उचित है कि अपने निरन्तर सुखी और स्वस्थ शरीर की रक्षा करो, क्योंकि पृथ्वी के चक्रवर्ती राज्य और स्वर्ग के राज्य में केवल पृथ्वी को छूने का भेद है, अन्यथा दोनों एक समान हैं ।
केसरी इतना कहकर चुप हो गया तो प्रतिध्वनि द्वारा मानों गुफा ने भी उसके कथन का अनुमोदन किया। राजा उसका उत्तर देने लगा तो उसने देखा कि मुनि की गौ बहुत कातर आंखों से उसकी ओर एकटक निहार रही है । राजा ने कहा-क्षत्रिय उसे कहते हैं जो प्रहार से निर्बल की रक्षा करे। मैं तुमसे नन्दिनी की रक्षा न कर सका, ऐसी दशा में अपने कर्तव्य से हीन और निन्दा से संकलित प्राणों को बचाकर क्या करूंगा? तुम कहते हो मैं बहुत-सी अन्य धेनुओं की भेंट देकर गुरु को संतुष्ट कर दें। यह नन्दिनी गौ सुरभि के बराबर महत्त्व रखती है।
असंख्य गौएं भी इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं। यदि तुम्हें भगवान् रुद्र का सहारा न होता, तो तुम इस प्रहार न कर रसकते। सो है मृगेन्द्र! मैं अपने शरीर को मूल्यरूप में देकर तुमसे इसे खरीदना चाहता हूं। यह न्याय की बात है, क्योंकि इससे तुम्हारी भूख भी मिट जाएगी, और मेरे गुरु का यज्ञ भी खंडित न होगा। तुम्हीं सोचकर देखो, भगवान की आज्ञा को मानकर तुम प्राणपण से इस देवदारू के पेड़ की रक्षा कर रहे हो। क्या इसी प्रकार गुरु की यज्ञधेनु की रक्षा में जीवन की बाजी लगा देना मेरा कर्तव्य नहीं है? मेरे जैसे व्यक्ति धर्म के सामने अपने हाड़-चाम के पिण्ड का कोई दाम नहीं समझते। यदि तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ है, तो उसका प्रभाव मेरे यशसरूपी शरीर की ओर प्रवाहित करो। सज्जनों की मैत्री का जन्म आपस की बातचीत से ही हो जाता है। वह हम दोनों में हो चुका-इस कारण हे भगवान् शंकर के सेवक, मेरी पहली इच्छा का तिरस्कार न करो। मुझे कलेवा बनाकर ऋषि की धेनु को छोड़ दो। सिंह ने उत्तर में कहा-बहुत अच्छा! उस समय राजा ने अनुभव किया कि उसके हाथों पर जो प्रतिबन्ध लगा था, वह हट गया। राजा ने अपने हथियार रख दिए, और मांस के पिण्ड के समान अपने निश्चेष्ट शरीर को बलिदान के लिए उपस्थित कर दिया।
प्रजाओं के पिता के समान सम्राट् दिलीप सिर नीचा करके सिंह के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। राजा ने आश्चर्य से देखा कि स्वर्ग के देवता उस पर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। इतने में शब्द सुनाई दिया-बेटा उठो! राजा ने आंखें उठाकर देखा तो वहां शेर का कोई चिह भी नहीं था। हां, मां के समान दूध बरसाती हुई नन्दिनी सामने खड़ी थी। राजा को आश्चर्य में डूबा देखकर नन्दिनी ने कहा --
हे राजन् मैंने अपनी माया के बल से तेरी परीक्षा ली है, अन्यथा, ऋषि के प्रभाव से मुझपर तो यमराज भी आक्रमण नहीं कर सकता साधारण हिंसक पशुओं की तो बिसात ही क्या है! तूने अपने गुरु के प्रति भक्ति और मेरे प्रति दया के भाव से मुझे प्रसन्न कर लिया है। हे पुत्र, तू यथेष्ट वर मांग! मैं केवल दूध नहीं देती, कामनाओं की पूर्ति भी करती हूं ।
नन्दिनी के इन वचनों से आश्वासन पाकर राजा ने शक्ति द्वारा वीरता का यश फैलाने वाले अपने हाथों को जोड़कर नन्दिनी को प्रणाम किया, और वर मांगा कि सुदक्षिणा की कोख से वंश का संस्थापक पुत्र - रत्न उत्पन्न हो। ऐसा ही होगा-यह आशीर्वाद देकर नन्दिनी ने राजा को आदेश दिया कि पत्ते के दोनों में लेकर मेरा दूध पियो; तुम्हारी कामना पूरी होगी। राजा ने निवेदन किया-मां, जैसे मैं पृथ्वी की रक्षा करके केवल उसका छठा भाग कर के रूप में लेता हूं, उसी प्रकार बछड़े और यज्ञ से बचा हुआ तुम्हारा दूध में ऋषि की अनुमति से ग्रहण करूंगा।
राजा के उत्तर से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर नन्दिनी हिमालय की गुफा से निकल आश्रम की ओर रवाना हुई। आश्रम में पहुंचकर राजा ने गुरु वसिष्ठ को शुभ समाचार सुनाया। रानी सुदक्षिणा ने राजा के प्रसन्न मुख को देखकर ही सब कुछ समझ लिया था। राजा ने शुभ समाचार सुनाया, वह तो पुनरुक्तिमात्र ही हुआ । सायंकाल होने पर यज्ञ और बछड़े से बचे हुए नन्दिनी के दूध को, गुरु की आज्ञा पाकर राजा ने इस प्रकार पिया, मानो शुद्ध यश का पान कर रहा हो।
दूसरे दिन प्रातः काल ऋषि ने राजदम्पती को आशीर्वाद देकर विधिपूर्वक विदाई दी। दोनों ने पहले यज्ञाग्नि की, फिर गुरु अरुन्धती सहित गुरु वसिष्ठ की और अन्त में बछड़े-समेत नन्दिनी की प्रदक्षिणा की। अपने पूर्ण हुए मनोरथ के समान विघ्नरहित और सुखकारी रथ से वे दोनों घर की ओर चले । जैसे अमावस्या के अनन्तर अन्तरिक्ष में फिर से दिखाई देने वाले औषधियों के स्वामी चन्द्र का दर्शन किया जाता है, चिरकाल के पश्चात् प्रजाओं की भलाई के लिए की गई तपस्या से कृशकाय दिलीप (के रूप) का प्रजाजनों ने उसी प्रकार प्यासे नेत्रों से पान किया, और झंडियों से राजधानी को सजाकर अभिनन्दन किया।
महाराज सिंहासनारूढ़ होकर समुद्र-मेखला पृथ्वी का शासन करने लगे। कुछ समय के पश्चात् जैसे अत्रि मुनि के नयनों से उत्पन्न चन्द्रमा को आकाश ने धारण किया था, जैसे अग्नि द्वारा फेंके हुए स्कन्दरूपी तेज को गंगा ने संभाल लिया था, वैसे ही रानी सुदक्षिणा ने कुल के लिए उत्कृष्ट गर्भ को धारण किया।
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